एक्जिस्टेंशियल क्राइसिस यानी अस्तित्व का संकट। ...तेरा क्या होगा कालिया?...इन दिनों डब्ल्यूटीओ पर फिट बैठ रहा है। प्रेसिडेंट ट्रंप ने पूरे वल्र्ड ऑर्डर को डिसरप्ट कर दिया है और इंटरनेशनल ट्रेड का सिपहसालार फैंस सिटर (मुंडेर पर बैठकर ताकने वाला) साबित हो रहा है। ट्रंप जहां ट्रेड प्रॉटेक्शन (सरंक्षणवाद) को हवा दे रहे हैं वहीं डब्यूटीओ फ्री ट्रेड पर हुए अटैक के सामने मजबूर है। डब्यूटीओ का दावा है कि 1 जनवरी 1995 को स्थापना के बाद से ग्लोबल ट्रेड में सालाना औसत 5.8 परसेंट की ग्रोथ हुई है। लेकिन जिस तरह से ट्रंप टैरिफ पर डबलडाउन (दांव बढ़ाना) कर रहे हैं उससे डब्यूटीओ के सामने साइडलाइन हो जाने और इंटरनेशनल ट्रेड को रेगुलेट करने की उसकी काबिलियत पर सवाल खड़े हो रहे हैं। आप जानते ही हैं चीन ने अमेरिका को डब्यूटीओ में घसीटा है लेकिन अमेरिका ने डब्यूटीओ की फंडिंग ब्लॉक कर इसे ही पंगु कर दिया है। डब्यूटीओ के डायरेक्टर-जनरल एनगो•ाी-ओकोंजो-इवीला को लगता है कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। वे कहती हैं कि डब्यूटीओ स्टेबिलिटी की गारंटी है, प्रिडिक्टिेबल बिजनस एन्वायर्नमेंट देता है, इंटरनेशनल ट्रेड में ट्रस्ट बढ़ाता है और यह अमेरिका सहित सभी देश जानते हैं। ट्रंप को लगता है कि डब्यूटीओ अन्य देशों के साथ मिलकर अमेरिका को नुकसान पहुंचा रहा है और ज्यादातर मामलों में उसके खिलाफ फैसले देता है। चीन वर्ष 2001 में डब्यूटीओ का मेंबर बना था जबकि भारत 1995 में ही बन गया था। इवीला कहती हैं ग्लोबल ट्रेड का 75' डब्यूटीओ के जरिए होता है। पहले यह 80' था लेकिन हाल के सालों में टैरिफ बढ़ाए जाने के कारण इसका शेयर घटा है। ट्रंप ने डब्यूटीओ पर जो अटैक किया है उसकी सुगबुगाहट सालों से थी। ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका द्वारा फंडिंग रोक देने और जो बाइडन द्वारा भी इसका कोई समाधान नहीं निकाले जाने के कारण जजों का अपॉइंटमेंट नहीं हो पा रहा है। इसके कारण डब्यूटीओ की डिस्प्यूट सैटलमेंट अपीलेट बॉडी ठीक से काम नहीं कर पा रही है। ट्रंप की टीम का मानना है कि डब्यूटीओ ने भारी-भरकम सब्सिडी के दम पर एक्सपोर्ट बढ़ाने में चीन की मदद की है। चीन ने एंट्री बैरियर लगाकर दूसरे देशों को अपने यहां एक्सपोर्ट करने से रोकता है। लेकिन डब्यूटीओ इसका कोई समाधान नहीं निकाल पाया। डब्यूटीओ में माहौल कितना सुस्त है इसका अंदाजा इस बात से भी लग सकता है कि इसके कर्मचारियों में जॉब चले जाने का डर बैठ रहा है। वल्र्ड बैंक के डेटा के अनुसार ग्लोबल जीडीपी में 1989 में ट्रेड का शेयर केवल 38 परसेंट था जो 2008 में ग्लोबल मेल्टडाउन के समय 61 परसेंट तक पहुंच गया था।
