TOP

ई - पेपर Subscribe Now!

ePaper
Subscribe Now!

Download
Android Mobile App

Daily Business Newspaper | A Knowledge Powerhouse in Hindi

02-04-2025

भीतर का बच्चा दब तो नहीं गया

  •  सामाजिक और व्यवसायिक जीवन में हम देख रहे हैं कि हमारे भीतर का बच्चा दब सा गया है, वह स्वाभाविक नहीं बोझिल है। एक युग था, जबकि सब कुछ प्राकृतिक था, नैसर्गिक था और लोग बच्चों की तरह निर्दोष थे। अब जब से सभ्यता और संस्कृति का दौर आया है, तब से कोई सभ्य है और कोई सुसंस्कृत, पर वह प्राकृतिक स्वाभाविकता लुप्त हो गई और भीतर का बच्चा सही मायने में दबा हुआ है। इसके अनेक कारण हैं और विभिन्न परिस्थितियों को इसके लिए दोष भी दिया जाता है। हम साधु-संत नाम से जब किसी की कल्पना करते हैं तो यह पाते हैं कि वह बहुत सरल व्यक्ति होगा, मिलने पर सहजता दिखायेगा, हमें कुछ नया और अच्छा बतायेगा। पर जब उनसे मिलते पहुंचते हैं, तो सच्चाई यह सामने आती है कि जैसा हम सोचते हैं वैसे संत तो मुश्किल से मिलते हैं और जो मिलते हैं उनमें अधिकतर में उनमें क्रोध और अहंकार अधिक होता है। यह लिखने का आशय संत समाज की आलोचना करना नहीं बल्कि एक व्यवहारिक स्थिति से अवगत कराना है। सवाल उठता है कि साधु-संतों में क्रोध-अहंकार क्यों रहता है, सरलता क्यों नहीं रहती, जवाब एकदम साफ है कि उन्होंने अपने भीतर के बच्चे को दबा दिया है। अर्थात् मन के उस द्वार को बंद कर दिया है, जो उन्हें सहज और सरल बनाता है। जब मन में सहजता और स्वाभाविकता वाला द्वार बंद होता है तो जो खुला होता है उसमें कुछ न कुछ विकृति आती ही है। हम जानते हैं कि एक बच्चा अबोध और दिमाग से एकदम क्लियर होता है। साधु-संतों में यह प्रवृत्ति क्यों आती है, इसके लिए बहुत सरल सा जवाब है कि उन्हें इच्छाओं का दमन करना सिखाया जाता है, जब वे इच्छाओं का दमन करेंगे तो उनमें जो उर्जा है वह कहां जायेगी। स्पष्ट है कि वह अधिकतर क्रोध के रूप में ही प्रकट होती है या अहंकार का स्वरूप धारण कर लेती है। साधु-संतों का लक्ष्य क्या है, ईश्वर प्राप्ति और सामाजिक नजरिये से देखें तो सभी के लिए सुख-शांति के प्रयास करना। पर क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाये तो नहीं होता। संयम के नाम पर साधु-संत भले ही अहिंसा का आचरण करें, लेकिन साथ ही उनकी सांसारिक इच्छाओं का दमन होता है और इस दमन के कारण वे स्वाभाविक तौर पर जी नहीं पाते। वे अपने जीवन को सहज और स्वाभाविक ढंग से खिलने नहीं देते। उनके लिए प्राकृतिक होना, सहज होना, सबसे कठिन हो गया है। हमारे यहां साधु-संतों के अनुगमन तथा उनके प्रवचनों के अनुसार पालन करने की परंपरा है, नतीजा समाज के अधिकतर लोग भी उसी आचरण को अपना लेते हैं।

    जब मानव ने सभ्यता-संस्कृति के युग में प्रवेष नहीं किया था, उसके पहले वह सहज था, सरल था और किसी चीज का दमन नहीं था। पर अब ये हाल हैं कि हर कोई दमन में लिप्त है। हमारे अचेतन मन में इतना बोझ है कि मन की सारी स्वाभाविकता सिमट गई है। यह सच है कि हमारी अपनी निजी जरूरते हैं, परिवार की जरूरतें हैं, समाज की जरूरतें हैं और देश की जरूरते हैं। पर उन सबसे बड़ी बात है कि हम सुखी रहें, आनंदित रहें। यह जो छोटा सा जीवन मिला है उसे आनंद से जीयें। यह हमारी निजी जरूरत है और निजी जरूरत को समाज और देश की जरूरत से अलग रखकर देखा जाना प्रासंगिक भी है। समाज को इससे मतलब नहीं कि आप सुखी हो या दुखी, समाज तो यही चाहेगा कि आपका उपयोग किया जाये। इस तरह एक व्यक्ति की अपनी और समाज व देश की जरूरतें भिन्न हैं। यहां आवश्यकता इस बात की आती है कि कोई व्यक्ति दूसरे के काम में दखल न दे, न उसकी स्वतंत्रता में और न उसके जीवन में। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने की स्वतंत्रता भी मिले, अपना काम करने की तथा उसमें कोई दखलंदाजी न हो। यह एक आदर्ष स्थिति है पर यह दिखती नहीं है और होती संभव भी नजर नहीं आती। अभी स्थिति है कि दखलंदाजी का यह क्रम जारी है कोई हमें अकेला छोड़ता ही नहीं। हमारी धार्मिक मान्यताएं भी ऐसी हैं कि हम कहीं भी हों, ईश्वर हमें देख रहा होता है। सामाजिक जीवन ने हमारे भीतर एक अंत:करण निर्मित कर दिया है और हम कुछ भी करते रहें, यह अंत:करण काम करता रहता है। यह अंत:करण हमें नैतिकता-अनैतिकता का पाठ सिखाने लगता है। हिंदू धर्म में व्यक्ति को एक पत्नी का अधिकार है, अगर दूसरी के बारे में कोई सोच ले तो अंत:करण ही कहने लगता है कि यह ठीक नहीं बल्कि अनैतिक है। यहां व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो अंत:करण एक सामाजिक व्यवस्था की पालना से अधिक कुछ भी नहीं है और हम उसमें खोये रहते हैं। हमारे अंत: करण में जो धारणाएं-भावनाएं भर दी जाती हैं, वे रियेक्ट करती रहती हैं। एक तरह से हम जहां भी जाते हैं, समाज हमारे साथ जाता है। हम सामाजिक स्वीकारोक्ति के विपरीत कुछ करें तो अंत:करण कचोटने लगता है। सच कहें तो यह वास्तविक अंतस की आवाज नहीं है, क्योंकि सच्ची भीतर की आवाज तो समाज के सिखाने से पैदा नहीं होती। सच्ची भीतरी आवाज तो तब आती है जब हम सहजता और सरलता का आचरण करें और मन में बच्चे को जिंदा रखें। इस अंतस की आवाज तक पहुंचने का मार्ग सबसे सरल है कि बच्चे बने रहो। समाजिक व्यवस्थाओं-परिस्थितियों ने हमारे मन को इतना अधिक भर दिया है कि हम जो भी सुनते हैं, सोचते हैं और करने की कोशिश करते हैं उसमें बहुत बार लगता है कि समाज भीतर से नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। वैसे तो नियंत्रण के लिए सरकारी कानून, पुलिस और अदालतें भी हैं। भीतर से नियंत्रित करने का भार हम ईश्वर पर छोड़ देते हैं, पर वहां भी हम बंधे रहते हैं इस बोध से कि ईश्वर देख रहा है। जब तक हम नैसर्गिक नहीं हो जाते हम अपना संपूर्ण नहीं दे सकते। इसलिए चाहे हम नियोक्ता हैं या कर्मचारी, हम अपनी उत्पादकता तभी दे सकते हैं जब कि हमारे भीतर एक स्वाभाविकता हो, जो सभी तरह के बंधनों-दायरों से मुक्त हो। इन बंधनों से मुक्त होकर हम प्रकृति के प्रति खुल जाते हैं और प्रकृति तो सदैव उर्जावान है। उसकी उर्जा हमारे लिए सतत् अनमोल है और हमें बेहतर कार्य करने के लिए स्वयमेव ही आगे कर देती है।
Share
भीतर का बच्चा दब तो नहीं गया

 सामाजिक और व्यवसायिक जीवन में हम देख रहे हैं कि हमारे भीतर का बच्चा दब सा गया है, वह स्वाभाविक नहीं बोझिल है। एक युग था, जबकि सब कुछ प्राकृतिक था, नैसर्गिक था और लोग बच्चों की तरह निर्दोष थे। अब जब से सभ्यता और संस्कृति का दौर आया है, तब से कोई सभ्य है और कोई सुसंस्कृत, पर वह प्राकृतिक स्वाभाविकता लुप्त हो गई और भीतर का बच्चा सही मायने में दबा हुआ है। इसके अनेक कारण हैं और विभिन्न परिस्थितियों को इसके लिए दोष भी दिया जाता है। हम साधु-संत नाम से जब किसी की कल्पना करते हैं तो यह पाते हैं कि वह बहुत सरल व्यक्ति होगा, मिलने पर सहजता दिखायेगा, हमें कुछ नया और अच्छा बतायेगा। पर जब उनसे मिलते पहुंचते हैं, तो सच्चाई यह सामने आती है कि जैसा हम सोचते हैं वैसे संत तो मुश्किल से मिलते हैं और जो मिलते हैं उनमें अधिकतर में उनमें क्रोध और अहंकार अधिक होता है। यह लिखने का आशय संत समाज की आलोचना करना नहीं बल्कि एक व्यवहारिक स्थिति से अवगत कराना है। सवाल उठता है कि साधु-संतों में क्रोध-अहंकार क्यों रहता है, सरलता क्यों नहीं रहती, जवाब एकदम साफ है कि उन्होंने अपने भीतर के बच्चे को दबा दिया है। अर्थात् मन के उस द्वार को बंद कर दिया है, जो उन्हें सहज और सरल बनाता है। जब मन में सहजता और स्वाभाविकता वाला द्वार बंद होता है तो जो खुला होता है उसमें कुछ न कुछ विकृति आती ही है। हम जानते हैं कि एक बच्चा अबोध और दिमाग से एकदम क्लियर होता है। साधु-संतों में यह प्रवृत्ति क्यों आती है, इसके लिए बहुत सरल सा जवाब है कि उन्हें इच्छाओं का दमन करना सिखाया जाता है, जब वे इच्छाओं का दमन करेंगे तो उनमें जो उर्जा है वह कहां जायेगी। स्पष्ट है कि वह अधिकतर क्रोध के रूप में ही प्रकट होती है या अहंकार का स्वरूप धारण कर लेती है। साधु-संतों का लक्ष्य क्या है, ईश्वर प्राप्ति और सामाजिक नजरिये से देखें तो सभी के लिए सुख-शांति के प्रयास करना। पर क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है। व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाये तो नहीं होता। संयम के नाम पर साधु-संत भले ही अहिंसा का आचरण करें, लेकिन साथ ही उनकी सांसारिक इच्छाओं का दमन होता है और इस दमन के कारण वे स्वाभाविक तौर पर जी नहीं पाते। वे अपने जीवन को सहज और स्वाभाविक ढंग से खिलने नहीं देते। उनके लिए प्राकृतिक होना, सहज होना, सबसे कठिन हो गया है। हमारे यहां साधु-संतों के अनुगमन तथा उनके प्रवचनों के अनुसार पालन करने की परंपरा है, नतीजा समाज के अधिकतर लोग भी उसी आचरण को अपना लेते हैं।

जब मानव ने सभ्यता-संस्कृति के युग में प्रवेष नहीं किया था, उसके पहले वह सहज था, सरल था और किसी चीज का दमन नहीं था। पर अब ये हाल हैं कि हर कोई दमन में लिप्त है। हमारे अचेतन मन में इतना बोझ है कि मन की सारी स्वाभाविकता सिमट गई है। यह सच है कि हमारी अपनी निजी जरूरते हैं, परिवार की जरूरतें हैं, समाज की जरूरतें हैं और देश की जरूरते हैं। पर उन सबसे बड़ी बात है कि हम सुखी रहें, आनंदित रहें। यह जो छोटा सा जीवन मिला है उसे आनंद से जीयें। यह हमारी निजी जरूरत है और निजी जरूरत को समाज और देश की जरूरत से अलग रखकर देखा जाना प्रासंगिक भी है। समाज को इससे मतलब नहीं कि आप सुखी हो या दुखी, समाज तो यही चाहेगा कि आपका उपयोग किया जाये। इस तरह एक व्यक्ति की अपनी और समाज व देश की जरूरतें भिन्न हैं। यहां आवश्यकता इस बात की आती है कि कोई व्यक्ति दूसरे के काम में दखल न दे, न उसकी स्वतंत्रता में और न उसके जीवन में। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने की स्वतंत्रता भी मिले, अपना काम करने की तथा उसमें कोई दखलंदाजी न हो। यह एक आदर्ष स्थिति है पर यह दिखती नहीं है और होती संभव भी नजर नहीं आती। अभी स्थिति है कि दखलंदाजी का यह क्रम जारी है कोई हमें अकेला छोड़ता ही नहीं। हमारी धार्मिक मान्यताएं भी ऐसी हैं कि हम कहीं भी हों, ईश्वर हमें देख रहा होता है। सामाजिक जीवन ने हमारे भीतर एक अंत:करण निर्मित कर दिया है और हम कुछ भी करते रहें, यह अंत:करण काम करता रहता है। यह अंत:करण हमें नैतिकता-अनैतिकता का पाठ सिखाने लगता है। हिंदू धर्म में व्यक्ति को एक पत्नी का अधिकार है, अगर दूसरी के बारे में कोई सोच ले तो अंत:करण ही कहने लगता है कि यह ठीक नहीं बल्कि अनैतिक है। यहां व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो अंत:करण एक सामाजिक व्यवस्था की पालना से अधिक कुछ भी नहीं है और हम उसमें खोये रहते हैं। हमारे अंत: करण में जो धारणाएं-भावनाएं भर दी जाती हैं, वे रियेक्ट करती रहती हैं। एक तरह से हम जहां भी जाते हैं, समाज हमारे साथ जाता है। हम सामाजिक स्वीकारोक्ति के विपरीत कुछ करें तो अंत:करण कचोटने लगता है। सच कहें तो यह वास्तविक अंतस की आवाज नहीं है, क्योंकि सच्ची भीतर की आवाज तो समाज के सिखाने से पैदा नहीं होती। सच्ची भीतरी आवाज तो तब आती है जब हम सहजता और सरलता का आचरण करें और मन में बच्चे को जिंदा रखें। इस अंतस की आवाज तक पहुंचने का मार्ग सबसे सरल है कि बच्चे बने रहो। समाजिक व्यवस्थाओं-परिस्थितियों ने हमारे मन को इतना अधिक भर दिया है कि हम जो भी सुनते हैं, सोचते हैं और करने की कोशिश करते हैं उसमें बहुत बार लगता है कि समाज भीतर से नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है। वैसे तो नियंत्रण के लिए सरकारी कानून, पुलिस और अदालतें भी हैं। भीतर से नियंत्रित करने का भार हम ईश्वर पर छोड़ देते हैं, पर वहां भी हम बंधे रहते हैं इस बोध से कि ईश्वर देख रहा है। जब तक हम नैसर्गिक नहीं हो जाते हम अपना संपूर्ण नहीं दे सकते। इसलिए चाहे हम नियोक्ता हैं या कर्मचारी, हम अपनी उत्पादकता तभी दे सकते हैं जब कि हमारे भीतर एक स्वाभाविकता हो, जो सभी तरह के बंधनों-दायरों से मुक्त हो। इन बंधनों से मुक्त होकर हम प्रकृति के प्रति खुल जाते हैं और प्रकृति तो सदैव उर्जावान है। उसकी उर्जा हमारे लिए सतत् अनमोल है और हमें बेहतर कार्य करने के लिए स्वयमेव ही आगे कर देती है।

Label

PREMIUM

CONNECT WITH US

X
Login
X

Login

X

Click here to make payment and subscribe
X

Please subscribe to view this section.

X

Please become paid subscriber to read complete news