ग्लोबलाइजेशन का मतलब है दुनिया के सभी देशों के बाजार एक-दूसरे के लिए खुले हो व उनके बीच आपस में कारोबार करना आसान हो जो बढ़ता भी रहे। ग्लोबलाइजेशन की व्यवस्था ने कई देशों को नीचे से ऊपर की ओर ले जाने में सबसे अहम् रोल निभाया है जिसका फायदा भारत सहित कई देशों को हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा लगाए गए टैरिफ के पीछे वैसे तो कई कारण हो सकते हैं जो सामने नहीं आ रहे पर सबसे बड़ा कारण उनका वह मिशन है जिसमें अमेरिकी लोगों द्वारा खरीदे जाने वाले प्रोडक्ट अमेरिका की फैक्ट्रियों और इंडस्ट्री में ही बने हो। उनका यह भी संदेश है कि जो विदेशी कंपनियां लगाए गए टैरिफ से आजादी चाहती है उन्हे अपने प्रोडक्ट अमेरिका की धरती पर ही बनाने होंगे यानि अमेरिका में इंवेस्ट करके ही वे वहां के बाजार में टिक पाएगी या उसका फायदा ले पाएगी। पिछले कई दशकों में ग्लोबलाइजेशन का फायदा उठाने के लिए वियतनाम, चीन, बंग्लादेश, जापान, साऊथ कोरिया, इंडोनेशिया, मैक्सिको, कनाड़ा जैसे कई देशों में Low-Cost मेन्युफेक्चरिंग पर जमकर इंवेस्टमेंट हुआ जिसने यूरोप और अमेरिका जिनकी Per-Capita इनकम सबसे ज्यादा है, के बाजार सस्ते प्रोडक्ट से भर दिए। वास्तव में ये देश ही ग्लोबलाइजेशन के डवलपमेंट का केन्द्र कहे जा सकते हैं जहां के Consumption का लेवल हर किसी को अपना माल बेचने के अवसर देता है। राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा ऑफिस संभालने के साथ ही हर सेक्टर की दिग्गज कंपनियों के बयान व घोषणाएं संकेत देने लगी थी कि वे अमेरिका में अपना कारोबार बढ़ाने पर काम कर रही है। इनमें एप्पल, हुण्डई, जॅानसन एण्ड जॅानसन के अलावा कई मशहूर ग्लोबल कंपनियां शामिल है। हालांकि कई एक्सपर्ट मानते हैं कि अमेरिका में प्रोडक्शन शुरू करना आसान नहीं है क्योंकि इसमें बड़ी ष्टशह्यह्ल लगती है इसलिए हो सकता है कि कंपनियां कुछ इंतजार करने के बाद ही ऐसे बड़े निर्णय ले पाए।
चीन की मेन्युफेक्चरिंग पॉवर सभी जानते है जिसने खिलोनों, कपड़ों, सोलर पैनल, कंस्ट्रक्शन मैटेरियल, लाइफ स्टाइल प्रोडक्ट्स के बाद अब हाई-टेक कारों, मशीनों व इलेक्ट्रोनिक्स से दुनिया की सभी दिग्गज कंपनियों के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है और चीन का पिछले वर्ष का 1 ट्रिलियन डॉलर का ट्रेंड Surplus बताता है कि वह इस मिशन में कितना कामयाब रहा। अमेरिका को वर्ष 2024 में 1.1 ट्रिलियन डॉलर का Current Account Deficit यानि विदेशी ट्रेड और इनकम में घाटा हुआ था जिसके चलते राष्ट्रपति ट्रम्प ने टैरिफ से इसे कम करना सही समझा। टैरिफ के असर को ध्यान में रखकर कई कंपनियों ने तो अमेरिका में इंवेस्टमेंट करने की घोषणा भी कर दी है। जर्मनी की Siemens 10 बिलियन डॉलर और ताईवान की सेमीकंडक्टर इंडस्ट्री अगले कुछ वर्षों में 100 बिलियन डॉलर अमेरिका में अपने प्लांट लगाने के लिए इंवेस्ट करने की घोषणा कर चुकी है। पिछले वर्षों में लगभग सभी बड़ी कंपनियां कम Cost पर प्रोडक्शन करने के लिए कई देशों में अपना इंवेस्टमेंट कर चुकी है जहां उनके लिए जरूरी रॉ-मैटेरियल व पाटर््स की सप्लाई का नेटवर्क काम कर रहा है। ऐसी स्थिति में अमेरिका में उसी Cost पर प्रोडक्शन करना मुश्किल माना जा रहा है क्योंकि वहां के सप्लायर्स कम Cost पर रॉ-मैटेरियल व पाटर््स नहीं दे पाएंगे। टैरिफ के कारण पहले से चल रहा ट्रेड वार ज्यादा गहराएगा यह सभी को लगने लगा है और अगर ऐसा होता है तो ग्लोबलाइजेशन के जिस फार्मूले पर देशों के बीच कारोबार बढ़ा था उसपर भी असर होगा जिसके चलते हर देश की लोकल इंडस्ट्री कम मार्जिन के साथ-साथ नए बाजारों तक पहुंच बढ़ाने के नए चैलेंज से जूझती नजर आएगी। कारोबारी माहौल जो भी बने पर यह तय है कि हमारे बाजारों पर भी कई देशों की निगाहे रहेगी जो अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए नए बाजारों की खोज करने का काम शुरू कर चुके हैं। इससे बनने वाली पहले से ज्यादा कम्पीटीशन की स्थिति का सामना करने के लिए कौन कितना तैयार है इसपर सरकारों सहित कारोबारों के लिए एकसाथ मिलकर समय रहते आत्ममंथन करना जरूरी कहा जा सकता है।